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History

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माँ

हमारा इतिहास — सरमेरा दुर्गा पूजा समिति

सरमेरा दुर्गा पूजा समिति की स्थापना सरमेरा गढ़ के प्रबुद्ध भूमिहार समाज एवं अन्य समान विचारधारा वाले व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास से सन् 1937 में की गई थी। यह वह समय था जब देश स्वतंत्रता संग्राम की लहरों से आंदोलित था, और ऐसे काल में सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण बनाए रखना एक चुनौती थी। इस समिति की स्थापना, गढ़पत्ति परिवार के वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित सदस्यों के सशक्त नेतृत्व में हुई, जिनमें प्रमुख रूप से श्री रामशरण प्रसाद सिंह उर्फ तनिक बाबू, बाबू चक्रधर प्रसाद सिंह एवं बागेश्वरी प्रसाद सिंह शामिल थे।

स्थापना एवं प्रारंभिक वर्षों की झलक

पूजा का प्रारंभिक आयोजन सरमेरा गढ़ के नीचे अवस्थित मैदान में हुआ था, उसके कुछ वर्ष के बाद गांव के दक्षिणी छोर पर अवस्थित सरोवर के किनारे पे स्थित मैदान में होने लगा जिसे आज दुर्गा मैदान के नाम से जाना जाता है। उस समय यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन की तरह था, जिसमें पूरे गाँव की सामूहिक चेतना और एकता का अद्वितीय प्रदर्शन देखने को मिला।

समिति की स्थापना जिन मूल्यों पर आधारित थी—जैसे कि खुले विचार, दूरदर्शिता, पारंपरिक रीति-रिवाजों के प्रति सम्मान, और सामाजिक समरसता—वे आज भी हमारे आयोजन की नींव हैं। यह पूजा अपने आरंभ से ही ‘घरुआ’ (घरेलू) भावना से जुड़ी रही है, जहाँ हर व्यक्ति, हर परिवार, एक दूसरे का सहयोगी बनकर इसे अपना बनाता आया है।

संगठनात्मक ढांचा और नेतृत्व परंपरा

सरमेरा दुर्गा पूजा समिति का संचालन एक सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत होता है, जिसमें अध्यक्ष और सचिव का चुनाव आपसी सहमति एवं सामूहिक निर्णय से समय-समय पर किया जाता है। स्थापना काल से लेकर अब तक लगभग 50 से अधिक लोग अध्यक्ष एवं सचिव के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। सभी पदाधिकारियों ने अपने-अपने कार्यकाल में बुद्धिमत्ता, ईमानदारी और समर्पण से कार्य करते हुए आयोजन की गरिमा को ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। यह उनकी कड़ी मेहनत और दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि आज यह आयोजन पूरे क्षेत्र में एक मिसाल बन चुका है।

परंपरा से आधुनिकता तक की यात्रा

आज, सरमेरा दुर्गा पूजा केवल एक पारंपरिक पूजा नहीं रह गई है, बल्कि यह आधुनिक तकनीक और डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़कर एक जन-आंदोलन का रूप ले चुकी है। हमारी माँ दुर्गा की वर्तमान प्रतिमा 15 फीट ऊँची है, जो अपने क्षेत्र की सबसे बड़ी प्रतिमाओं में से एक है। यह भव्य मूर्ति कोलकाता के प्रसिद्ध मूर्तिकार अमित पाल और उनकी टीम द्वारा विशेष रूप से तैयार की जाती है।

हर वर्ष यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 50,000 के पार पहुँच जाती है, और हमारी डिजिटल उपस्थिति भी लगातार बढ़ रही है। सोशल मीडिया पर हमारी गतिविधियाँ, लाइव दर्शन, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झलकियाँ, और भक्तों की सहभागिता ने इस आयोजन को न केवल स्थानीय बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई है।

भविष्य की ओर

सरमेरा दुर्गा पूजा का यह ऐतिहासिक आयोजन केवल अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि यह आने वाले समय के लिए एक प्रेरणा है। यह पूजा एक ऐसा मंच है जहाँ परंपरा और आधुनिकता का अद्वितीय संगम होता है। हम आशा करते हैं कि आने वाले वर्षों में यह आयोजन और भी व्यापक रूप लेगा, और इसकी लोकप्रियता न केवल हमारे क्षेत्र में बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में फैले हमारे प्रवासी भाइयों और बहनों के दिलों में भी अपनी विशेष जगह बनाएगी।

हमारे यहाँ मूर्ति पूजा की परंपरा

हमारे समाज और परिवार में मूर्ति पूजा का विशेष महत्व है। यह केवल पूजा-अर्चना नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की आस्था और परंपराओं की अमूल्य धरोहर है। हमारे यहाँ मूर्ति पूजा की परंपरा वर्ष 1937 से चली आ रही है। यह परंपरा आज़ादी से पहले ही हमारे पूर्वजों द्वारा शुरू की गई थी और तब से लगातार पूरी निष्ठा और रीति-रिवाज के साथ निभाई जा रही है। इस पूजा में हर व्यक्ति अपनी श्रद्धा और भक्ति के साथ सम्मिलित होता है, जिससे यह अवसर एक धार्मिक और सामाजिक उत्सव का रूप ले लेता है। इस परंपरा की सबसे अनोखी विशेषता ‘खोइछा भराई’ का कार्यक्रम है। जहाँ अधिकांश स्थानों पर यह अनुष्ठान सप्तमी या अष्टमी के दिन संपन्न होता है, वहीं हमारे यहाँ इसे "नवमी "की रात से आरंभ किया जाता है। यह विशिष्ट रीति हमारे दुर्गापूजा समिति की आस्था को और भी विशेष बना देती है। यह परंपरा न केवल पूजा का माध्यम है, बल्कि हमारी पहचान और एकता का प्रतीक भी है। यह हमें अपने पूर्वजों की संस्कृति से जोड़े रखती है और आने वाली पीढ़ियों को भी भक्ति, श्रद्धा और परंपराओं के मूल्य सिखाती है।

सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं जागरण

हमारे यहाँ सर्वप्रथम रात्री के समय लोगों के मनोरंजन तथा भीड़ को एकत्रित करने के लिए नाटक का आयोजन किया जाता था। क्योंकि हमारे ही गढ़ के बड़े बुज़ुर्गों और संस्थापक सदस्यों द्वारा स्वयं से नाटक, रंगमंच, रासलीला, रामलीला जैसे विभिन्न प्रकार के नाटकों का आयोजन किया जाता था, जिसका आनंद पूरे गाँव के सभी लोग उठाते थे और काफी उत्साहित रहते थे। यह उनके लिए अत्यधिक मनोरंजन का साधन हुआ करता था। धीरे-धीरे समय के साथ इसमें परिवर्तन होता गया और फिर जागरण होने लगे। बड़े-बड़े कलाकार और गायक आकर माँ का जागरण करते रहे। भक्ति और भक्ति-रस के गीतों में सराबोर होकर सभी श्रद्धालु लोगों का मनोरंजन होता रहा। रातभर कार्यक्रम चलता और लोग आनंदित होते। आजकल यह परंपरा और आगे बढ़कर भक्ति गीतों पर आधारित नृत्य-नाट्य कला के रूप में भी की जाती है, जिसका आनंद लोग बड़ी संख्या में उठाते हैं। इस तरह का आयोजन लगभग दस दिन पहले से ही प्रारंभ कर दिया जाता है, जो कि अत्यंत सफल रहता है। भीड़ अधिक होती है, उसे एकत्रित करने, संभालने और व्यवस्थित रखने के लिए हमारे स्वयंसेवक सक्रिय सदस्य काफी मेहनत और परिश्रम करते हैं। जागरण पूरी रात चलता है और सुबह पाँच बजे तक चलता रहता है। इसके बाद प्रातः माँ के विदाई गीत के साथ कलाकारों द्वारा प्रस्तुति दी जाती है और उसी विदाई गीत के साथ माँ के विसर्जन के लिए हम सब आगे के लिए प्रस्थान करते हैं।

विसर्जन – अद्वितीय और अलौकिक दृश्य

इस पूजा का सबसे अलौकिक और अद्भुत क्षण होता है माता की प्रतिमा का विसर्जन। विसर्जन के दिन गाँव के सभी समाज के – पुरुष– माता की प्रतिमा को अपने कंधों पर उठाकर पूरे गाँव का परिक्रमा करते हुए सरोवर तक पहुँचते हैं। विशेष बात यह होती है कि प्रतिमा को कहीं बीच में नहीं रखा जाता, उसे सीधे सरोवर तक ले जाया जाता है। सरोवर के किनारे पहुँचते ही वातावरण अत्यंत भावुक और भव्य हो उठता है। उस क्षण पूरा गाँव के बच्चे बूढ़े एवं महिलाएं अपने अपने घरों से बाहर निकल कर सभी लोग सरोवर के तट पर इकट्ठा होकर उस अलौकिक दृश्य के साक्षी बनते हैं। श्रद्धा, भक्ति और आस्था का यह अद्वितीय संगम हर किसी के मन को छू जाता है।